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Monday, May 19, 2014

द्रोहकाल (1994) फिल्म समीक्षा - मोहित शर्मा (ज़हन)



द्रोहकाल पुलिस के एक अलग तरह के संघर्ष से दर्शको का परिचय करवाती है। वैसे ऐसे  विषयों को गोविंद जी तरजीह देते है और 1980 के दशक में आई इनकी फिल्म अर्धसत्य ने तहलका मचा दिया था, जिसको आज भी भारतीय सिनेमा की दिशा बदल कर रख देने वाली फिल्म के तौर पर याद किया जाता है। फिल्म पुलिस और उग्रवादियों की गुथमगुत्था की एक नयी दास्ताँ पेश करती है और उस समय के हिसाब से काफी आगे की फिल्म लगती है, जो बात गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित कई फिल्मो पर कही जा सकती है।




फिल्म का आगाज़ होता है अभय सिंह (ओम पुरी) और अब्बास लोधी (नसीरुद्दीन शाह) द्वारा ऑपेरशन धनुष के गठन से अंतर्गत एक प्रमुख उग्रवादी संगठन में 2 पुलिसिये मुखबिर आनंद (मनोज बाजपाई) और शिव (मिलिंद गुणाजी) को प्लांट करने से। उग्रवादियों की ताकत को कम आंकने की वजह से धीरे-धीरे उनकी मुश्किलें बढ़ती है जो उनके निजी जीवन को भी प्रभावित करने लगती है। आनंद कुछ वर्षो बाद उग्रवादियों द्वारा पकड़ लिया जाता है पर वो उन्हें कुछ पता चलने से पहले ही आत्महत्या  कर लेता है जिस से शिव का राज़ बचा रहता है।  शिव के प्रयासों से गुट का मुखिया भद्रा (आशीष विध्यार्थी)  पकड़ा जाता है जिसके बावजूद पुलिस को विफलतायें मिलती रहती है। तब उग्रवादी गुट पुलिस स्पेशल सेल में सेंध लगाने की कोशिश करते है जो रहस्य और मानवीय विवशताओं का नया आइना दिखाती है।

द्रोहकाल के सबसे मज़बूत पक्ष है उसकी दमदार कास्टिंग और निर्देशन, कई दृश्यों को जीवंत सा करते कैमरा एंगल्स और सेट्स।  फिल्म के केंद्र में है ओम पुरी (जो गोविंद की पसंद रहें है और अक्सर उनकी फिल्मो में दिखते है) जिनका अभिनय वास्तविक और किरदार अनुरूप है, उनके बाद मीता वशिष्ठ को काफी फुटेज मिली जिसको सार्थक किया उन्होंने , कहानी के मुख्य प्लाट से वो अलग रही पर अभय सिंह के निजी जीवन की झलकियों में वो ओम पुरी पर भारी दिखी। अंत में अन्नु कपूर के साथ उनका दृश्य रोंगटे खड़े वाला है। आशीष विध्यार्थी ने कमाल का नपा तुला काम किया है,  कुछ जगह उनके  संवाद मज़ा बढ़ा देते है। । नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, अन्नु कपूर प्रभावित करते है हालांकि मिलिंद गुणाजी ने थोड़ा निराश किया। गोविंद जी की ख़ास बात यह है की वो समानांतर और मुख्यधारा सिनेमा के बीच में सक्रीय रहकर किसी दक्ष शिल्पी की तरह ऐसी फिल्मो का निर्माण करते है जिसे दोनों तरह के दर्शक वर्ग देख-समझ सकते है और लुत्फ़ उठा सकते है।  ऊपर से उनका करियर भी काफी लम्बा रहा जो अभी तक जारी है, वैसे देव (2004) के बाद उनकी कोई फिल्म नहीं आई है पर वो अभी भी सक्रीय है जो एक अच्छा संकेत है।

फिल्म के नकारात्मक पहलुओं में पहले तो कहानी में संघर्ष को और गहरा करते एंगल्स  की कमी है खासकर जब विषय  इतना संवेदनशील है। उग्रवाद से जुड़ा सब कुछ सीधी रेखा पर चलता सा दिखता है। एडिटिंग में भी कुछ जगह खामियां दिखती है। कुछ अदाकारों को और कैमरा टाइम दिया जा सकता था बिना फिल्म का  समय बढ़ाये। ओवरआल अर्ध सत्य से तो तुलना करना बेमानी होगा पर फिर भी एक अच्छा प्रयास कहूँगा, द्रोहकाल को मैं 7/10 रेट करूँगा।

421 Brand Beedi Grade: B+

- मोहित शर्मा (ज़हन)

Sunday, May 4, 2014

किस्सा कुर्सी का (1978) फिल्म समीक्षा


"किस्सा कुर्सी का" (1978), नेट सर्फ़ करते हुए इस फिल्म के बारे में कुछ बेहद रोचक जानकारियाँ पता चली तो इसे देखने का मन बनाया। यह दुनिया की पहली ऐसी फिल्म है जो खुद का ही रीमेक है। हालाँकि यह एक काल्पनिक प्रयास बताया गया पर इसमें परोक्ष रूप से कुछ कटाक्ष थे भारतीय राजनीती एवम व्यवस्था पर तो 1976 में जब यह मूवी विपक्षी नेता अमृत नहाटा द्वारा बनाकर रिलीज़ को भेजी गयी, तत्कालीन सरकार को यह नागवार गुज़री और संजय गांधी ने देश भर से इस फिल्म के प्रिंट्स और मास्टरप्रिंट भी मुंबई से जबरन लेकर गुड़गांव स्थित मारुती की फैक्ट्री में रिलीज़ की तिथि से पहले जलवा दिये। तब यह पूरी फिल्म सिर्फ फिल्म से जुड़े कुछ लोगो ने और सेंसर बोर्ड के कुछ सदस्यों से देखी थी। मास्टर प्रिंट जल जाने की वजह से वो पहला प्रयास जिसमे ज़्यादा बजट और बेहतर कटाक्ष, कहानी थी वो दुनिया के सामने नहीं आ पायी। मुकदमा चला और दोषी संजय गांधी को कुछ हफ्तों की कैद हुयी। 

कुछ समय बाद जनता पार्टी के सरकार आने के बाद अमृत नहाटा ने स्क्रिप्ट में थोड़े फेर-बदल किये ताकि इस बार बवाल और विरोध कम हो, जैसे - सीधे प्रहारों की जगह छद्म कटाक्ष, यह फिल्म थोड़े थिएटर स्टाइल की तरफ मोड़ी और इसका बजट और कलाकार कम किये। यानी यह कहा जा सकता है की पहले बनी फिल्म कई मायनो में बेहतर होगी। कहानी से पहले तब भारत की व्यवस्था बताता चलूँ की तब सोशलिस्ट व्यवस्था के अनुसरण में जनता और व्यापार के ऊपर सरकारी पाबंदियां, लाइसेंस राज था जिसमे सरकार की मुँहलगी कंपनीज़ को लाभ मिलता था और फैक्ट्रीज आदि लगाने का लाइसेंस हज़ारो में चुनिंदा को मिल पाता था। समाजवाद की आड़ लेकर पहले भी गिने चुने लोगो तक ही फायदा पहुँचता था। गलत नीतियों पर आवाज़ उठाने वाले रहस्यमय तरीके से गायब हो जाते थे या मर जाते थे। 

कहानी में राजनीती के किंगमेकर्स मीरा (सुरेखा सिकरी, जी हाँ बालिका वधु की दादी सा) और गोपाल (राज किरण) सोची समझी चालो से एक मामूली सड़कछाप जमूरे गंगाराम उर्फ़ गंगू (मनोहर सिंह) को 'जन गण' देश का राष्ट्र प्रमुख बना देते है। फिर वो सब सत्ता के खेल में भोली भाली और गूँगी जनता (शबाना आज़मी) का तरह-तरह से शोषण करते है। कुर्सी बचाने के लिए जनता का ध्यान भटकाना, समय-समय पर परिस्थिति अनुसार रणनीति बदलना भी उनके काम में शामिल है। कहानी का अंत एक बड़ा संदेश दोहराता है की व्यक्ति के कर्म जैसे कालांतर में फल वैसे मिल ही जाते है। 


फिल्म मे सबसे प्रभावशाली बात जो थी वह ये की काफी खूबी से कुछ तत्कालीन और भारतीय बहुत से राजनीती मे सदाबहार मुद्दो पर मीठी छुरी से वार किये गए है। समझदारी और तार्किक तरीके से हास्य में लिपटे इशारे किये है। अभिनय की बात करें तो फिल्म की कॉस्टिंग बड़ी सोच समझ कर की गयी होगी, सबसे पहले तो बिना एक शब्द बोले आँखों और भावो से शबाना आज़मी ने मार्मिक चित्रण किया है भोली जनता का, फिर चमन बग्गा जो  प्रेजिडेंट गंगाराम के धूर्त सेक्रेटरी देशपाल बने है ने अपने किरदार में जान डाल दी, अफ़सोस है की चमन जी जैसी प्रतिभा 3-4 फिल्मो तक सीमित रह गयी। राज किरण, सुरेखा सिकरी और त्पल दत ने भी अपने किरदारों के साथ न्याय किया। फिल्म में तब विवादों में रहीं मॉडल, अदाकारा केटी मिर्ज़ा भी है। 

यह फिल्म आर्ट-सामानांतर सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा का एक दुर्लभ एवम अच्छा मेल थी। दोबारा बनाये जाने, थोड़ी नीरस शुरुआत, स्क्रिप्ट में थोड़े बदलाव और पहले प्रयास से कम बजट की वजह से फिल्म में कुछ कमी लगती है पर फिर भी यह अपने मे एक पूर्ण और अपने समय से कहीं आगे की फिल्म लगती है। जिस वजह से मैं इस फिल्म को 8/10 रेटिंग देता हूँ और पढ़ने वालो से अपील करता हूँ की इसको ज़रूर देखें आपका समय व्यर्थ  नहीं जायेगा। 

421 Brand Beedi Grade - A (Rating: 8/10)



Mohit Sharma (Trendster / Trendy Baba)