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Friday, June 27, 2014

लघु फिल्म समीक्षायें # 2 - मोहित शर्मा (ज़हन)

*) - हँसी तो फसी (2014)



हँसी तो फसी, नयी फिल्मों में से कुछ एक मे है जो कोशिश मुझे पसंद आयी। प्रेम कहानी मे किरदार है वो इसको थोड़ा हटकर बनाते है। सिद्धार्थ मल्होत्रा और परिणीति चोपड़ा की परदे पर जोड़ी आकर्षक है। जहाँ सिद्धार्थ का किरदार सीधा सा है फिल्म की असल धुरी और जान है परिणीति का परिवर्तनशील किरदार। अदा शर्मा के पास करने को ज़्यादा कुछ था नहीं। हालाँकि, कहानी में काफी गुंजाईश थी जो पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो पायी। संगीत कर्णप्रिय है। मेरे लिए हालिया समय की बेहतरीन फिल्मो मे से एक। 

रेटिंग - 7.5/10 
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*) - मैडागास्कर फिल्म सीरीज़ (2005, 2008, 2012)



एनीमेशन की तरफ हमेशा से मेरा रूझान रहा है पर अक्सर ऐसा होता था की जो बातें, कहानियाँ मुझे अच्छी लगती थी वो मेरे घरवालो, दोस्तों की पसंद नहीं बन पाती। फिर किस्मत से एक बार मैडागास्कर (2005) घरवालो के साथ देखी। इस बार यह सभी ने पसंद की। शेर एलेक्स से लेकर किंग जूलियन सब कुछ इतना दिलचस्प उसपर एक लाजवाब कहानी जिसमे अमरीकी चिड़ियाघर के 4 स्टार जानवर एक अंजानी जगह पहुँच जाते है। दूसरा भाग उतना रोचक नहीं था पर फिर भी मज़बूत नींव के दम पर कहानी में एलेक्स के अतीत के राज़ खुलते है। इस श्रृंखला की निकटतम कड़ी में चिड़ियाघर-जंगल के बाद सर्कस को लाया गया, जिसमे इन प्राणियों को देखकर आनंद बढ़ गया। 

वैसे पहले भाग को अधिक रेट करूँगा पर अभी पूरी श्रृंखला को रेट करना हो तो 7/10 अंक। 
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*) - हमशकल्स (2014)



साजिद खान एक समझदार इंसान और कलाकार है। यह उनके पुराने टीवी शोज़ देख कर आप अंदाज़ा लगा सकते है। फ़िल्मकार के रूप में वो सिर्फ पैसो को महत्व देते लगते है जिस वजह से पहले की तरह यहाँ उनकी प्रतिभा नहीं दिखती। दिखता है तो बेवकूफाना दृश्यों, संवादों और भ्रम में इधर उधर भागते किरदार। इसपर भी उनके कुछ फिक्स फंडे जैसे गे किरदार, अमीर खानदान, कन्फ्यूजन से बदली स्थिति, यहाँ तक की एक जैसे गाने (ट्रेडमार्क परोक्ष रूप से दर्शाया जाता है ना की इस तरह) आदि। वैसे फॉर अ चेंज पहले के प्रयासों से इस कहानी में थोड़ा दिमाग लगाया गया है जो लाज़मी है 3X3 ट्रिपल रोल के साथ। अभिनेत्रियों को भी अधिक फ़ुटेज देने में साजिद नाकाम रहते है। राम कपूर और सतीश शाह ने प्रशंषनीय काम किया है। संगीत औसत आया-गया रहेगा। 

रेटिंग - 4.5/10 
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यह साली ज़िन्दगी (2011)



2010 कई लोगो का सवाल था की फ्रेंच सरकार ने नाईटहुड की उपाधि क्यों दे दी सुधीर मिश्रा को। इनमे ज़्यादातर वो थे जिन्होंने सुधीर जी के लिखे बनाये सिनेमा को बस सुना, कभी देखा नहीं। दुर्भाग्य से इन लोगो की सँख्या बहुत अधिक है। बताते चलें की सुधीर जी को 3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिल चुके है। यह साली ज़िन्दगी में एक नहीं बल्कि कई गूढ़ कथाएँ आपस में पिरोयी गयी है। समाज की नब्ज़ पकड़ बनायीं गयी फिल्म। अपराध, अपहरण, प्रेम, कुर्बानी की अनदेखी तस्वीरें पेश की गयी है। पर फिर जब सब कुछ सुधीर मिश्रा अंदाज़ में है तो तो त्रुटियाँ या कमियां भी उन्ही के स्टाइल वाली है यानी तेज़ रफ़्तार कहानी में किरदारों और कहानी के पहलुओं को ज़रुरत भर का भी ना समझाना। इरफ़ान खान, चित्रांगदा सिंह, प्रशांत, यशपाल कथानक में जान डाल देते है वहीँ अरुणोदय और अदिति एक बड़े हिस्से में व्यर्थ गये। 

रेटिंग - 6.5/10 

Thursday, June 26, 2014

लघु फिल्म समीक्षायें - मोहित शर्मा ज़हन

*) - फरेब (1996)



अनलॉफुल एंट्री (1992) पर आधारित विक्रम भट द्वारा निर्देशित यह कहानी नयी नहीं थी, इतने कम किरदारों के साथ रोमांच पैदा करने में फिल्म नाकाम रही। कलाकार फ़राज़ खान और सुमन रंगनाथन का फरेब मूवी से फिल्मो में पदार्पण हुआ। यह रिश्तों में दरार दिखाती, पारिवारिक-निजी कलह और त्रिकोण जैसी बातें लिये भट कैंप की ट्रेडमार्क फिल्म है। हालाँकि, अपने समय अनुसार बाद में आई फिल्मो का टोंड डाउन वर्सन है। मिलिंद गुणाजी यहाँ भी अभिनय में अग्रणी है। फिल्म का एक गाना "यह तेरी आँखें झुकी-झुकी, यह तेरा चेहरा खिला-खिला…" उस समय  मशहूर हुआ था। संगीत से दर्शको को सिनेमा में खींचना भी भट कैंप की पुरानी आदत है। इसके अलावा अभिजीत का गाया "यार का मिलना...." मधुर है। फिल्म के बाद संगीत में जतिन-ललित ब्रांड मज़बूत हुआ।

रेटिंग - 4.5/10  

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*) - इस रात की सुबह नहीं (1996)



सुधीर मिश्रा उन निर्देशकों में से है जिन्होंने अपनी अलग राह पकड़ी और भीड़ में पहचान बनायी। यह फिल्म मुंबई अपराध जगत को एक अलग कोण से दिखाती है। जहाँ 2 डॉन आमने सामने है और बीच में फँसा है एक प्रेमी युगल। उस दौर में इस विषय पर बहुत सी फिल्मे बनायीं गयी और  "इस रात की सुबह नहीं" अपने ट्रीटमेंट और रफ़्तार के कारण जानी गयी। पर सुधीर जी एक कमी है की वह कहानी के सिरे खुले छोड़ देते फिर उन्हें आम जनता को समझाने कोशिश नहीं करते, ऐसी ही कुछ आदत मेरे लेखक मित्र श्री करण विर्क की है, जिस वजह से ऐसा बढ़िया काम भी कई लोग समझ नहीं पाते। अभिनय में निर्मल पाण्डेय, आशीष विध्यार्थी, सौरभ शुक्ला, तारा देशपांडे ने सराहनीय काम किया है। दुख है की तारा देशपांडे और निर्मल पाण्डेय को अधिक मौके नहीं मिल पाये। कुछ जगह दृश्यों बेहतर बजट से सुधारा  जा सकता था। फिल्म से "चुप तुम रहो.." आज भी अक्सर रेडियो, टीवी पर सुनने को मिल जाता है। 

रेटिंग - 6.5/10 

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*) - फोर ब्रदर्स (2005)



4 गोद लिये हुए सौतेले भाइयों का साथ आकर अपनी माँ की हत्या का बदला लेना। बेसिक प्लाट काफी घिसा-पिटा लगता है,  पर किरदारों की बनावट और अनेक यादगार दृश्यों के बल पर कभी-कभी फिल्म कहानी मोहताज़ नहीं रहती। कुछ ऐसा ही यहाँ जॉन सिंगलटन की फिल्म के साथ हुआ। फिल्म में रिश्तो गूढ़ता से बने ड्रामा और बदले भावना से बने एक्शन का ज़बरदस्त संगम है। कुछ कोण, दृश्य  संवाद फिल्म की गुणवत्ता बढ़ा देते है। बॉबी यानी मार्क वॉलबर्ग का लुक और अभिनय सबसे बेहतर है। 

रेटिंग - 7/10 

Thursday, June 19, 2014

एक डॉक्टर की मौत (1991) फिल्म समीक्षा - मोहित शर्मा (ज़हन)



एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म। यह ईमानदार प्रयास प्रकाश डालता है भारतीय सरकारी प्रणाली और उसके मुलाज़िमों पर ना सिर्फ सुस्त, कामचोर, घूसखोर होते है बल्कि किसी सच्चे, मेहनती इंसान को भी आगे बढ़ता नहीं देखना चाहते चाहे इसमें दूसरो का भला ही क्यों ना छिपा हो। असल घटना तो  लम्बी और दर्दनाक थी इसलिए इस रूपांतरण में कुछ बातें बदली गयी पर फिर भी फिल्म का संदेश साफ़ मिला। 

कहानी एक डॉक्टर-वैज्ञानिक की है जो वर्षो तक कुष्ट रोग पर अनुसंधान करता है, अपनी निजी ज़िन्दगी और करियर को दांव पर लगा कर। इस धुन में सवार वो अपने करीबियों, खासकर  अपनी पत्नी को बहुत तकलीफ पहुँचाता है पर वो उसका साथ निभाते है। डॉक्टर की मेहनत में कोई कमी नहीं थी पर काम का अगला कदम यानी व्यवस्था और उसके भ्रष्ट लोगो पर निर्भरता। इसमें दुखी डॉक्टर अपेक्षित व्यवहार नहीं करता और कई किताबी ज्ञान  रखने वाले नाम के महकमे वालो को नाराज़ कर बैठता है। इस बीच डैमेज कंट्रोल और काउन्सलिंग की कोशिशें होती है, करीबी समझाते है पर सब बेकार। तो इस अदने डॉक्टर-वैज्ञानिक और सिस्टम के बीच किसकी जीत हुयी, इसके लिये फिल्म देखिये। 



फिल्म का प्लाट तो बेहतरीन और अलग है ही पटकथा में तपन सिन्हा द्वारा की गयी मेहनत, रिसर्च साफ़ झलकती है। वैज्ञानिक भाषा, एक्सप्लेनेशन, बैकड्रॉप कमाल के है। थोड़ी कमी बस बजट में दिखी जो समानांतर सिनेमा में आम बात है। अभिनय के मामले में फिल्म के मुख्य किरदार पंकज कपूर डॉक्टर रॉय के किरदार में घुल गये है, उनकी कोई सीमा ही नहीं लगती और दर्शक के मन में अलग-अलग दृश्यों में वो किरदार अनुरूप क्या कर देंगे देखने की जिज्ञासा रहती है, ऐसा बहुत कम कलाकारों के साथ होता है। डॉक्टर रॉय की पत्नी की निरंतर शांत  व्यथा तत्कालीन सिनेमा में शबाना आज़मी के अलावा शायद ही कोई निभा पाता। युवा पत्रकार बने इरफ़ान खान ने सीमित संवादों और दृश्यों के बावजूद भी दिल जीत लिया। विजयेंद्र घाटके के किरदार का उचित प्रयोग नहीं किया गया जैसा इस उम्दा अभिनेता के साथ अक्सर होता आया है। अब इनकी उम्र की वजह से इनका करियर भी सेमी-रिटायरमेंट में चला गया है, हालाँकि इनकी बेटी सागरिका घाटके अब बॉलीवुड में सक्रीय है। । दीपा साही को अपने मसाला किरदारों से अलग पर सीमित रोल मिला।  



भारतीय परिवेश के इस पेचीदा विषय को समझाते हुए लिखी गयी पटकथा कुछ जगह मौलिक बात से हटती और टूटती सी लगती है जो स्वाभाविक बात है  पर विषय की गहराई और मार्मिकता कम नहीं होती। फिल्म का ट्रीटमेंट आपको दूरदर्शन के स्वर्णिम युग की याद भी दिलवायेगा, इस फिल्म को मै 8/10 रेटिंग दूंगा। 

421 Brand Beedi Grade - A (Rating 8/10)