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Sunday, May 4, 2014

किस्सा कुर्सी का (1978) फिल्म समीक्षा


"किस्सा कुर्सी का" (1978), नेट सर्फ़ करते हुए इस फिल्म के बारे में कुछ बेहद रोचक जानकारियाँ पता चली तो इसे देखने का मन बनाया। यह दुनिया की पहली ऐसी फिल्म है जो खुद का ही रीमेक है। हालाँकि यह एक काल्पनिक प्रयास बताया गया पर इसमें परोक्ष रूप से कुछ कटाक्ष थे भारतीय राजनीती एवम व्यवस्था पर तो 1976 में जब यह मूवी विपक्षी नेता अमृत नहाटा द्वारा बनाकर रिलीज़ को भेजी गयी, तत्कालीन सरकार को यह नागवार गुज़री और संजय गांधी ने देश भर से इस फिल्म के प्रिंट्स और मास्टरप्रिंट भी मुंबई से जबरन लेकर गुड़गांव स्थित मारुती की फैक्ट्री में रिलीज़ की तिथि से पहले जलवा दिये। तब यह पूरी फिल्म सिर्फ फिल्म से जुड़े कुछ लोगो ने और सेंसर बोर्ड के कुछ सदस्यों से देखी थी। मास्टर प्रिंट जल जाने की वजह से वो पहला प्रयास जिसमे ज़्यादा बजट और बेहतर कटाक्ष, कहानी थी वो दुनिया के सामने नहीं आ पायी। मुकदमा चला और दोषी संजय गांधी को कुछ हफ्तों की कैद हुयी। 

कुछ समय बाद जनता पार्टी के सरकार आने के बाद अमृत नहाटा ने स्क्रिप्ट में थोड़े फेर-बदल किये ताकि इस बार बवाल और विरोध कम हो, जैसे - सीधे प्रहारों की जगह छद्म कटाक्ष, यह फिल्म थोड़े थिएटर स्टाइल की तरफ मोड़ी और इसका बजट और कलाकार कम किये। यानी यह कहा जा सकता है की पहले बनी फिल्म कई मायनो में बेहतर होगी। कहानी से पहले तब भारत की व्यवस्था बताता चलूँ की तब सोशलिस्ट व्यवस्था के अनुसरण में जनता और व्यापार के ऊपर सरकारी पाबंदियां, लाइसेंस राज था जिसमे सरकार की मुँहलगी कंपनीज़ को लाभ मिलता था और फैक्ट्रीज आदि लगाने का लाइसेंस हज़ारो में चुनिंदा को मिल पाता था। समाजवाद की आड़ लेकर पहले भी गिने चुने लोगो तक ही फायदा पहुँचता था। गलत नीतियों पर आवाज़ उठाने वाले रहस्यमय तरीके से गायब हो जाते थे या मर जाते थे। 

कहानी में राजनीती के किंगमेकर्स मीरा (सुरेखा सिकरी, जी हाँ बालिका वधु की दादी सा) और गोपाल (राज किरण) सोची समझी चालो से एक मामूली सड़कछाप जमूरे गंगाराम उर्फ़ गंगू (मनोहर सिंह) को 'जन गण' देश का राष्ट्र प्रमुख बना देते है। फिर वो सब सत्ता के खेल में भोली भाली और गूँगी जनता (शबाना आज़मी) का तरह-तरह से शोषण करते है। कुर्सी बचाने के लिए जनता का ध्यान भटकाना, समय-समय पर परिस्थिति अनुसार रणनीति बदलना भी उनके काम में शामिल है। कहानी का अंत एक बड़ा संदेश दोहराता है की व्यक्ति के कर्म जैसे कालांतर में फल वैसे मिल ही जाते है। 


फिल्म मे सबसे प्रभावशाली बात जो थी वह ये की काफी खूबी से कुछ तत्कालीन और भारतीय बहुत से राजनीती मे सदाबहार मुद्दो पर मीठी छुरी से वार किये गए है। समझदारी और तार्किक तरीके से हास्य में लिपटे इशारे किये है। अभिनय की बात करें तो फिल्म की कॉस्टिंग बड़ी सोच समझ कर की गयी होगी, सबसे पहले तो बिना एक शब्द बोले आँखों और भावो से शबाना आज़मी ने मार्मिक चित्रण किया है भोली जनता का, फिर चमन बग्गा जो  प्रेजिडेंट गंगाराम के धूर्त सेक्रेटरी देशपाल बने है ने अपने किरदार में जान डाल दी, अफ़सोस है की चमन जी जैसी प्रतिभा 3-4 फिल्मो तक सीमित रह गयी। राज किरण, सुरेखा सिकरी और त्पल दत ने भी अपने किरदारों के साथ न्याय किया। फिल्म में तब विवादों में रहीं मॉडल, अदाकारा केटी मिर्ज़ा भी है। 

यह फिल्म आर्ट-सामानांतर सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा का एक दुर्लभ एवम अच्छा मेल थी। दोबारा बनाये जाने, थोड़ी नीरस शुरुआत, स्क्रिप्ट में थोड़े बदलाव और पहले प्रयास से कम बजट की वजह से फिल्म में कुछ कमी लगती है पर फिर भी यह अपने मे एक पूर्ण और अपने समय से कहीं आगे की फिल्म लगती है। जिस वजह से मैं इस फिल्म को 8/10 रेटिंग देता हूँ और पढ़ने वालो से अपील करता हूँ की इसको ज़रूर देखें आपका समय व्यर्थ  नहीं जायेगा। 

421 Brand Beedi Grade - A (Rating: 8/10)



Mohit Sharma (Trendster / Trendy Baba)

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